भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
405 / हीर / वारिस शाह
Kavita Kosh से
क्यों विगड़के तिगड़के पाट पयों अन्न आबिहयात है भुखयां नूं
बुढा होवसे जिंद जां रहन टुरनों फिरे ढूंढ़दा टुकड़यां रूखयां नूं
किते रन्न घर बार ना अडया ई अजे फिरे चलांवदा तुकया नूं
वारस शाह अज वेख जे चढ़ी मस्ती इनां लुंडयां भुखदयां सुकयां नूं
शब्दार्थ
<references/>