भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

586 / हीर / वारिस शाह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खतम रब्ब दे करम दे नाल होई फरमायश पयारड़े यार दी सी
ऐसा शे’र कीता पुर मगज मौजूं<ref>सटीक, उम्दा</ref> जेही मोतियां लड़ी शहवार दी सी
तूल खोल के<ref>पूरी लंबाई में, विस्तार से</ref> जिकर बयान कीता रंग रंग दी खूब बहार दी सी
तमसील<ref>नाटक, नाटकीयता</ref> दे नाल बयान कीता जेही जीनत<ref>शोभा</ref> लालां दे हार दी सी
जो कोई पड़े सो बहुत खुरसंद होवे वाह वाह सभ खलक पुकारदी सी
वारस नूं सिक दीदार दी सी जेही हीर नूं भटकना यार दी सी

शब्दार्थ
<references/>