भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

59 / हीर / वारिस शाह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कूके मार ही मार के पकड़ छमकां परी आदमी ते कहरवान होई
रांझे उठ के आखया वाह सजन हीरहस के ते मेहरबान होई
कछे वंझली कन्नां दे विच वाले जुलफ मुखड़े ते परेशान होई
भिंने वाल चुने मत्थे चंद रांझा नैनी कजले दी घमसान होई
सूरत यूसफ दी देख तैमूर बटी सने मलकी बहुत हैरान होई
नयन मसत कलेजड़े विच धाने हीर घोल घती कुरबान होई
आ बगल विच बैठके करें गलां जिवें विच किरबान<ref>म्यान में</ref> कमान होई
भला होया मैं तैनूं ना मार बैठी कोई नहीं सी गल बेशान होई
रूप जट दा वेख के चाट लगी हीर वार घती सरगरदाठ<ref>हैरान</ref> होई
वारस शह ना थां दम मारने दी चार चशम<ref>आंख</ref> दी जदों घमसान होई

शब्दार्थ
<references/>