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आत्मग्लानि / निधि अग्रवाल

सड़कें अपनी अपंगता पर लज्जित हैं कि
वह पिता की हथेलियाँ न बन पाईं,
अपनी दरिद्रता पर रोता है आसमान
वह माँ के आँचल-सी शीतलता न दे सका।
स्याह तन से झरती स्वेद बूँदें देख
उद्वेलित हैं सातों समंदर,
उनका आक्रोश कभी 'अम्फान'
कभी 'निसर्ग' बन उमड़ता है,
पटरियाँ चाहती हैं धरती में समा जाना
वह रोटियों के अवशेषों से क्षमाप्रार्थी हैं।
एक ख़ाली पालना लिए चले जाते हैं दो मृत मन
हर सत्ता को ललकारता पालने का आड़ोलन
सृष्टि के अंत का कर रहा है निर्घोष गर्जन,
बीमार पिता को सहेजती एक लड़की
बढ़ी जाती है मंथर-मंथर,
कांवर उतारता श्रवण हमसे पूछ रहा है
अपनी आत्मा पर इतना बोझ
तुम क्योंकर ढोते हो?