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उन हाथों से परिचित हूँ मैं (कविता) / शलभ श्रीराम सिंह

हाथ जिन्हें क़लम और कलछुल की पहचान मालूम है
मालूम है जिन्हें सब्ज़ियों का स्वाद
भात की गर्मी पहचानते हैं जो
रोटी और किताब का मतलब जानते हैं ठीक-ठीक
उन्हीं हाथों की दी हुई दवा से ज़िन्दा हूँ मै
ज़िन्दा हैं मेरी उम्मीदें।

ख़तरे में पडी अगर उन हाथों की पहचान
वक़्त का माथा ठनक सकता है
धड़क सकता है ज़मीन का सीना

ग़लत कामों में लगाया गया उन हाथों को जिस दिन
भूख के दाँत निकल आएंगे दिन-दहाड़े
बीमारियों के जबड़े खुल जाएंगे सरे-शाम

ग़लत हाथों में दिए गए अगर वे हाथ
क़लम की निब और कलछुल की डंडी टूट जाएगी
बिगड़ जाएगा सब्ज़ियों का स्वाद
ख़त्म हो जायेगी भात की गर्मी
रोटी और किताब के अर्थ का अनर्थ हो जाएगा।
उन हाथों से परिचित हूँ मै
परिचित हूँ हथेलियों की एक-एक लकीर से।


रचनाकाल : 1992, मसोढ़ा