भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राम-सा जीवन / गरिमा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूर्य होकर भी स्वयं जो मान दीपक को दिया
राम-सा जीवन जगत में राम ने ही है जिया

राम करुणा, न्याय, समता, त्याग, तप, परमार्थ हैं
सद्गुणों, सद्आचरण का राम ही भावार्थ हैं
जो स्वयं जग के पिता हैं, निज पिता आदेश पर
त्याग दें तत्क्षण सकल वैभव वही पुरुषार्थ हैं
इस जगत को दे सुधारस नित्य पग-पग विष पिया

राम जन्मे थे महल में पर महल में कब रहे
राम ने कपि, रीछ, केवट, भीलनी सब हृद गहे
वो कि जिनकी उँगलियों पर यह चराचर नाचता
वो जगत हित सिय बिना विरहाग्नि में पल-पल दहे
जो रमा के नाथ हैं बन कर रहे सिय के पिया

मित्रता के धर्म के श्रीराम हैं मानक बने
राम को ध्याते सदा शिव, राम शिव साधक बने
यह सकल ब्रह्मांड जिनके अंश से गतिमान है
राम मर्यादित रहे, वह सिंधु के याचक बने
राम ने आदर्श का पथ स्वयं को ही कर लिया

मातु कैकेयी सगी जैसी हमेशा मानकर
युग-युगों से जो प्रतीक्षित, वह अहिल्या तारकर
धृष्टता, व्यभिचार जैसे दुर्गुणों का दंड क्या
इस चराचर को बताया था दशानन मारकर
एक पत्नी व्रत रहे, पतिधर्म आलोकित किया

राम जीवन भर सिया के राम बनकर ही रहे
देह दो हैं पर सदा इक नाम बनकर ही रहे
साथ सीता के सदा ही दीं परीक्षाएँ सभी
और उनका एक-सा परिणाम बनकर ही रहे
राम बसते हैं सिया में, राम में बसतीं सिया