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लोकगीत / संतोष श्रीवास्तव

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मैं लोकगीत हूँ
शीर्षक विहीन
जो लिखा नहीं गया
गाया गया
जाने कहाँ- कहाँ
जाने कितनी रागों में
कितने स्वरों में
मैं रागों पर सवार
हवा का हिस्सा हो
गूँजता रहा ,भटकता रहा
दरबदर
गाया गया इस क़दर
कि गाँव, खेत ,खलिहान की
हदें भी न रोक सकीं मुझे
मैं फैलता गया
उस सदी से इस सदी तक
बेनाम, बेपता
जाने किस राह पर
चलता रहा
बैरंग लिफाफे सा