भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अँधेरे के दिन / लक्ष्मीशंकर वाजपेयी

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:15, 30 सितम्बर 2016 का अवतरण (लक्ष्मीशंकर वाजपेयी जी की कविता अंधेरे के दिन)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बदल गए हैं अँधेरों के दिन
अब वे नहीं निकलते
सहमे, ठिठके, चुपके-चुपके रात के वक्त
वे दिन-दहाड़े घूमते हैं बस्ती में
सीना ताने,
कहकहे लगाते
नहीं डरते उजालों से
बल्कि उजाले ही सहम जाते हैं इनसे
अकसर वे धमकाते भी हैं उजालों को
बदल गए हैं अँधेरों के दिन।