भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अन्त / नरेन्द्र मोहन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:45, 5 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं मौन का दरवाज़ा
लांघता हूँ
बिना शब्द किए
अन्त की ओर

यहाँ न रंग दिखते हैं न रेखाएँ
न रूप न अरूप
दिखती है
एक चमकीली मछली
जूझती
हाँफती
तेज़ लहरों के खिलाफ

अन्त की शुरूआत ऐसे ही होती है क्या ?