भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपना फर्ज निभाता पेड़ / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:16, 29 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दादाजी-दादाजी बोलो,
पेड़ लगा जो आंगन में।
इतना बड़ा हुआ दादाजी,
बोलो तो कितने दिन में?

मुझको यह सच-सच बतलाओ,
किसने इसे लगाया था।
हरे आम का खट्टा-खट्टा,
फल इसमें कब आया था?

मात्र बरस दस पहले मैंने,
बेटा इसे लगाया था।
हुआ बरस छह का था जब ये,
तब पहला फल आया था।

बीज लगाया था जिस दिन से,
खाद दिया, जल रोज दिया।
पनपा खुली हवा में पौधा,
मिली धूप तो रूप खिला।

तना गया बढ़ता दिन पर दिन,
डाली पर फुनगे फूटे।
हवा चली जब सर-सर-सर सर,
गान पत्तियों के गूँजे.

पहला फूल खिला डाली पर,
विटप बहुत मुस्काया था।
जब बदली मुस्कान हंसी में,
तब पहला फल आया था।

तब से अब तक हम सबने ही,
ढेर-ढेर फल खाये हैं।
जब से ही यह खड़ा बेचारा,
अविरल शीश झुकाये है।

इसे नहीं अभिमान ज़रा भी,
कुछ भी नहीं मंगाता है,
बस देते रहने का हरदम,
अपना फर्ज निभाता है।