भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपना होना / प्रेमलता वर्मा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:13, 30 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमलता वर्मा |संग्रह= }} <Poem> बाँहों के ऊपर चांद ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाँहों के ऊपर चांद का गुदना
नदी से चिपकी एक खुली खिड़की
तलुओं को सहलाती हुई कोई
मन-लायक ऋतु
काँच के आर-पार जाने वाले
सपने की सुविधा

यह सब तो है अपने पास
कवितावाले नाव की तक़दीर में
ज़िन्दगी के अर्थ खोलने के लिए
जीवन का जायजपन सिद्ध करने की ख़ातिर
उसे विश्व के माथे पर टाँक देने की ख़ातिर
मग्नोलिया के अंदाज़ में
उसे सूंघने की ख़ातिर और
इन्द्रियों में आबाद कर लेने की ख़ातिर
अपनी मंज़िल पर शान से
बिना घुटने टेके पहुँचने की ख़ातिर

है तो वह नाव
खिड़की खुली,
चांद का गुदना
और अपना होना।
इससे ज़्यादा और क्या चाहिए...