भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अपने दुश्मन हाथ मलते रह गए / हरिराज सिंह 'नूर'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
{{KKCatGhazal}}
 
{{KKCatGhazal}}
 
<poem>
 
<poem>
अपने दुश्मन हाथ मलते रह गए,
+
अपने दुश्मन हाथ मलते रह गए।
 
हम तो ग़म हँसते-हँसाते सह गए।
 
हम तो ग़म हँसते-हँसाते सह गए।
  

22:43, 17 अक्टूबर 2019 के समय का अवतरण

अपने दुश्मन हाथ मलते रह गए।
हम तो ग़म हँसते-हँसाते सह गए।

कर नहीं पाए जो हमसे खुल के बात,
बोलती आँखों से क्या-क्या कह गए।

पार कर आए समुन्दर इश्क़ का,
ग़म के दरिया में मगर वो बह गए।

बस ख़यालों में ही हम खोए रहे,
और हक़ीक़त के महल सब ढह गए।

हम ज़ुबां से कर सके उफ़ तक न ‘नूर’,
हँस के हम उस के सितम सब सह गए।