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"अबला- ४. महा नगर में भटकने पर / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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रेड लाइटों पर भागकर
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मोटर-गाडियों के जबड़े से
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अपनी टांग छुडाई
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मर्दाने अंगों से बचाते-बचाते
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खायी में फिसली-गिरी
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पुलिस-भैया के बहकावे में
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निचाट चौकी से पिंड छुडाई
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फिर, राहत की सांस लेने
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भीड़ में समाई
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धूप में रगड़ खा
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पसीने-पसीने हुई
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मर्दानी दुर्गन्ध से सराबोर हुई
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मतली-उल्टी से जार-जार हुई
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आखिरकार, सूखी नाली में चलती हुई
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महफूज़ हुई
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उसे लगा कि जैसे
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औचक आंधी आ गई हो
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और वह झूल रही हो
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अलगनी पर साड़ी की तरह,
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जिसे मायके जाती औरत
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उतारना भूल गई हो.

13:41, 21 जून 2010 का अवतरण

महानगर में भटकने पर

धूम्र छत्ते के नीचे
रपटती सड़कों पर
सांप-गाड़ियों, कीट-पसिंजरों
के धक्कमपेल में
बिछुड़ गयी अपने मरद से

रेड लाइटों पर भागकर
मोटर-गाडियों के जबड़े से
अपनी टांग छुडाई
मर्दाने अंगों से बचाते-बचाते
खायी में फिसली-गिरी
पुलिस-भैया के बहकावे में
निचाट चौकी से पिंड छुडाई
फिर, राहत की सांस लेने
भीड़ में समाई

धूप में रगड़ खा
पसीने-पसीने हुई
मर्दानी दुर्गन्ध से सराबोर हुई
मतली-उल्टी से जार-जार हुई
आखिरकार, सूखी नाली में चलती हुई
महफूज़ हुई

उसे लगा कि जैसे
औचक आंधी आ गई हो
और वह झूल रही हो
अलगनी पर साड़ी की तरह,
जिसे मायके जाती औरत
उतारना भूल गई हो.