भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अब के इस तरह तिरे शहर में खोए जाएँ / राम रियाज़" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=
 
|संग्रह=
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatGhazal}}
 
<poem>
 
<poem>
 
अब के इस तरह तिरे शहर में खोए जाएँ
 
अब के इस तरह तिरे शहर में खोए जाएँ

08:28, 29 मार्च 2014 के समय का अवतरण

अब के इस तरह तिरे शहर में खोए जाएँ
लोग मालूम करें हम खड़े रोए जाएँ

वरक़-ए-संग पर तहरीर करें नक़्श-ए-मुराद
और बहते हुए दरिया में डुबोए जाएँ

सूलियों को मिरे अश्कों से उजाला जाए
दाग़ मक़्तल के मिरे ख़ून से धोए जाएँ

किसी उनवान चलो ताज़ा करें ज़ुल्म करें ज़ुल्म की याद
क्यूँ न अब फूल ही नेज़ों में पिरोए जाएँ

‘राम’ देखे अदम-आबाद के रहने वाले
बे-नियाज़ ऐसे कि दिन रात ही सोए जाएँ