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अब दूर नहीं / उर्मिल सत्यभूषण

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अब दूर नहीं मेरे पास हो तुम
आती-जाती मेरी श्वास हो तुम
मैं जब चाहूँ तुम्हें देख सकूँ
मन मंदिर में तुम रहने लगे
‘मैं तुझसे हूँ, तू मुझसे है
‘वंशी स्वर में नित कहने लगे
अपने भक्तों के दास हो तुम।
घनघोर घटा घिर आती है
बिजली की कौंध डराती है
तब सिहर सिहर करती मुझको
कोई आस किरण सहलाती है
मेरे भीतर का प्रकाश हो तुम।
जब संकट से घबराती हूँ
तुम धीरे से समझाते हो
थक हार अगर पड़ जाती हूँ
मेरी बाँह पकड़ने आते हो
तुम आशा हो, विश्वास हो तुम,
नियति से नित चोटे खाकर
मैं किर्च-किर्च सा झरती हूँ
तब पावन परस तुम्हारा पा
झरने से नदिया बनती हूँ
मेरे तन-मन का उल्लास हो तुम
दुर्गण दुर्गन्ध विकल करती
तब रूप मुझे दिखलाते हो
पापों के उस पंकिल जल में
तुम शतदल सा खिल जाते हो
मेरे आंसू हो और हास हो तुम
आती-जाती मेरी श्वास हो तुम।