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अरे पापा / कुमार वीरेन्द्र

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आजकल बेटा
बहुत बउराहापनी करने लगा है, बहुत
मतलब बहुत, बहुत; अक्सर मुझसे लगा रहता है, मैं जब पत्नी को आवाज़ देता हूँ, 'सुनो बेबी'
वह पुकारता है, 'सुनो बेबी'; कहता हूँ, 'वह तेरी मम्मी है, नाम लेता है, बउराह है का?', वह भी
कहता है, 'वह तुम्हारी पत्नी है, नाम लेते हो, एकदमे बउराह हो का?'; 'अरे बाबा
तेरा ई मुँह बन्द क्यों नहीं रहता', 'अरे बाबा, तुम्हारा ई मुँह बन्द क्यों
नहीं रहता', 'देखो बउआ, बता देता हूँ, सुन लो, मैं कभी
बात नहीं करूँगा', 'देखो पापा, मैं भी बिल्कुल
बात नहीं करूँगा, बिल्कुल सुन
लो'; 'तू बिना दिमाग़
का है
मालूम है तुझे'
'तुम बिन दिमाग के हो, मालूम है तुम्हें'

'तू पागल है, पगला देगा, भाई; तेरी मेरी बातचीत बन्द', 'तुम पागल हो, पागल कर दोगे, भाई
तुम्हारी मेरी बातचीत बन्द'; और मैं एकदम चुप हो, रूठा-सा, मुँह लटकाए, एक कोन पकड़
माटी का माधो बन बैठ जाता हूँ, वह भी हू-ब-हू ऐसा ही करता है, कुछ क्षण दोनों
बने रहते हैं, एक-दूसरे के मुखापेक्षी; फिर गँवे वह आता है, मेरी पीठ
पर झूल जाता है, और मनाने लगता है, 'अरे यार, पापा
आप भी न गजब ही करते हो, छोटे-छोटे
बच्चों की तरह छोटी-छोटी
बात पर, कितना

बड़ा-बड़ा गुस्सा करते हो !'