भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज खुली जब गुज़रे वक़्तों की अलमारी बरसों बाद / राज़िक़ अंसारी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:16, 15 जून 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राज़िक़ अंसारी }} {{KKCatGhazal}} <poem>आज खुली...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज खुली जब गुजरे वक़्तों की अलमारी बरसों बाद
शोलों में तब्दील हुई फिर इक चिंगारी बरसों बाद

जाने क्या सीने के अंदर बरसों पहले टूटा था
ख़ामोशी को चीर के निकली चींख हमारी बरसों बाद

हम लोगों के पाओं से अब के इतने छाले फूटे हैं
ख़ुश्क ज़मीनों से निकलेगी इक पिचकारी बरसों बाद

पत्थराई आंखों पर लेकिन दस्तक दे कर लौट गई
हम से मिलने आई थी कल नींद हमारी बरसों बाद

वक़्ते रुख़सत झूटे आंसू ये भी कोई साज़िश है
रोने वालों को याद आई रिश्ते दारी बरसों बाद