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आत्मा में बसा मरुस्थल / निदा नवाज़

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आज मुझे छुपा लो
अपने पोर-पोर में
मुझे समेट लो
आज मैं डर गया हूँ
बिखर गया हूँ
कि आखिर कब तक
सत्य न बोलने की पीड़ा को
चाय के कडुवे घूंट
के साथ बांधे रहूँ
अपनी दम-घुटती आकांक्षाओं
बिखरी आहों
जवान चेहरे पर
उभरी झुर्रियों
और आत्मा में बसे
मरुस्थल पर
फीकी हंसी की चादर ओढूं
अब मैं यह सब झेलते-झेलते
एक पत्थर बन गया हूँ.