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आधे गाँव की भौजी / कुमार वीरेन्द्र

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होगी, सबकी ससुराल में
होगी नाइन, पर मेरी ससुराल की नाइन जैसी
और कहीं कोई नाइन कहाँ, मेरी ससुराल की नाइन लगने को
लगती है सरहज, कहने को कहते भौजइया, और भले ही हो
गई है साठ की, पर आज भी उसके ऐसे
कमाल, ऐसे जलवे, ऐसे

मज़ाक़, ऐसे करतब, ऐसे-ऐसे
कि अपनी सास तो दूर, साली-सरहज भी, देखें तो देख-देख
शरमाएँ, गाड़ लें मुँह, हँसते-हँसते फूल जाए पेट, पानी-पानी हो आए आँख, और पाहुन
पाहुन तो जैसे कैसे भी, अपने प्राण ले दुआर-दालान, खोरी कहीं भी, भाग निकलने को
ढूँढ़ें राह, पर वह ढूँढ़े से भी न मिले, कि वह बैठी होती वहीं, फिर कौन ऐसा
पाहुन, जो बने पाड़ा, खुलवा के लुंगी, वह भी ससुराल में
बड़ी अजीब है नहीं, अजीब में

अजीब है मेरी ससुराल
की नाइन, एक बार का आँखों देखा यह, गाड़ा जा रहा था साली
का माड़ो, और भौजियों में हज़ार भौजी, सालियों में हज़ार साली, सरहजों में हज़ार सरहज
कि पाहुन तो पाहुन, देवर तो देवर, जो उसके ससुर लगते, लगते जो उसके भसुर, उनको भी
घोले हुए आटे, हल्दी, उबटन से लुक-छिप, भकोलवा बाबा बना के ही लिया
दम, और आँगन में का मरद का मेहरारू, क्या बच्चे
सब के सब होते रहे लोटपोट

ऐसे गड़ा माड़ो, कि सुधर जाएगी
दुनिया, नहीं सुधरेगी ई गाँव की ई नाइन, और नहीं सुधरेगी तो न सुधरे
चाहता भी कौन, इसीलिए तो सुनते सब, सब बूझते, रहते मौन, ऐसे लोगों के गाँव की ऐसी
है नाइन, ऐसी जो का सुख का दुःख, दौड़ी आती ख़ाली पाँव, दिन हो या रात, और गर्भवती
का उल्टा बच्चा भी, सीधा कर देती जनमा, बुढ़ियों-जवनकियों की कमर
का, भगाती फिरती चोर, दबाती फिरती उनकी देह
जिनके कई, छूता न कोई

जबकि ख़ुद नाइन का कौन
आपन, मरद गया जवानी में बिदेस, लौटा न बुढ़ापे तक देस
बाक़ी कसर बेटे-बहुओं ने कर दी पूरी, कर दिया अलग, एक दिन हँसते-हँसते पूछ ही लिया
'ए भौजइया, तू नाइन पूरे गाँव की, तोहार कौन नाइन ?', पता नहीं बूझा कि क्या, चली गई
मुसकाते, ऐसी ही ऐसी, अपने रंग में माटी, अपनी माटी की नाइन, तभी तो
जब एक दिन, ऐसे गिरी खटिया पर, लगा कि बचेगी न अब
देखते-देखते, हो गया पूरा गाँव जमा

और एक मुँह से कहा
सबने, 'कोई गाँव क्या, समूची धरती पर
मिलेगी कहाँ ऐसी, अपने गाँव की सिर्फ़ ई नाइन नाइन नहीं
अरे आओ भाई, कवनो जुगत भिड़ाओ रे भाई, गाँव अन्हार
होने से बचाओ भाई, ई भौजी जी भौजी
भौजी आधे गाँव की !