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आवाज़ें / प्रांजलि अवस्थी

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जब आवाजें उठतीं है
शोर होता ही है
ऐसा शोर जो सुना जा सके
जिसमें कहीं न कहीं एक आवाज़
उस गूँगे की भी होती है
जो पैदाइशी चुप्पी से तंग आ चुका है

ऐसे ही शोर से निकल कर आते हैं
कुछ अगुवा
जो पालने में पड़े हुये पूतों की तरह होते हैं
जिनकी आकृति शोर के साथ बढ़ती जाती है

कुछ खैरख्वाह
जो आपको पता भी नहीं होते
कि कब आपके सलाहकार बन जाते है
जो आपके गले में अपनी आवाजें भरते हैं

कुछ कूटनीतिज्ञ जो
राजनीति की चक्की पर आवाजों को दलते हैं
ताकि पोषित हो सकें

आवाज की कोई हद, कोई जद़ नहीं होती
कोई आयु वर्ग और जाति नहीं होती
उम्र अवधि अनिश्चित सही

किन्तु इन आवाज़ों के पैर
वज़न में भारी
इनके निशान पुख्ता होते हैं
तभी भीड़ के सीने पर से दौड़ती हुयीं
ये आपके ज़ेहन में कौंध जातीं हैं

इन तमाम़ आवाजों की पुनरावृत्ति भी ज़रूर होती है
और इनमें एक आवाज़ तुम्हारी होती है