भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"इंडिया गेट पर एक शाम / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 16: पंक्ति 16:
 
चाबियों का गुच्छा अंटी में दबा
 
चाबियों का गुच्छा अंटी में दबा
 
इत्मिनान से रात में  
 
इत्मिनान से रात में  
समाने चली जाती है,
+
समाने चली जाती है
 +
 
 
उदास भूत और कहीं  नहीं
 
उदास भूत और कहीं  नहीं
 
यहीं मिलते हैं--दम साधे हुए  
 
यहीं मिलते हैं--दम साधे हुए  
पंक्ति 29: पंक्ति 30:
 
सोचा था इस छायादार पेड़ के नीचे  
 
सोचा था इस छायादार पेड़ के नीचे  
 
अमन-चैन की बयार बहेगी  
 
अमन-चैन की बयार बहेगी  
साफ-सुथरी आबोहावा में  
+
साफ-सुथरी आबोहवा में  
 
हथियारों की फसलों के बजाय  
 
हथियारों की फसलों के बजाय  
 
गुच्छेदार गुलदार इंसानियत वाले  
 
गुच्छेदार गुलदार इंसानियत वाले  
पंक्ति 35: पंक्ति 36:
 
   
 
   
 
गुमसुम भूतों की सफेद आंखों में  
 
गुमसुम भूतों की सफेद आंखों में  
अफसोस के बादल घुमड़ते हुए  
+
अफसोस के काले बादल घुमड़ते हुए  
 
इंडिया गेट के ऊपर पसर जाते हैं  
 
इंडिया गेट के ऊपर पसर जाते हैं  
जैसे जनाजे को कफन से ढँक दिया गया हो  
+
जैसे जनाजे को  
आखिर, ऐसा आलम क्यों हैं,
+
कफन से ढँक दिया गया हो
 +
 +
आखिर, ऐसा आलम क्यों हैं  
 
भूत खुश क्यों नहीं हैं
 
भूत खुश क्यों नहीं हैं
 
चुनिन्दा बड़े लोगों से  
 
चुनिन्दा बड़े लोगों से  
पंक्ति 44: पंक्ति 47:
 
उसे भरपूर भोग रहे हैं  
 
उसे भरपूर भोग रहे हैं  
 
इस बात से बेफिक्र होकर कि  
 
इस बात से बेफिक्र होकर कि  
उन्हें शुक्रगुजार होना चाहिये भूतों का  
+
उन्हें शुक्रगुजार होना चाहिये इन भूतों का  
 
जिन्होंने इस योनि से पहले  
 
जिन्होंने इस योनि से पहले  
 
इस बच्ची को फिरंगी व्यभिचारियों से  
 
इस बच्ची को फिरंगी व्यभिचारियों से  
पंक्ति 51: पंक्ति 54:
 
बेशक! आजादी के खबरनामचों से  
 
बेशक! आजादी के खबरनामचों से  
 
भूत पीड़ित क्यों हैं?  
 
भूत पीड़ित क्यों हैं?  
 +
 
वे हर बात पर  
 
वे हर बात पर  
 
और मायूस क्यों हैं?  
 
और मायूस क्यों हैं?  
 +
 
जबकि आजादी के मिसाल बने  
 
जबकि आजादी के मिसाल बने  
 
धर्माधीश, सियासतदार और सामाजिक गुर्गे
 
धर्माधीश, सियासतदार और सामाजिक गुर्गे

16:24, 24 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण


इंडिया गेट पर एक शाम
(स्वतंत्रता-सेनानियों के भूतों के साथ)

भूतों के प्राकट्य पर
संध्या--
दिन के उत्सवों को
निचाट कक्ष में बंद कर
चाबियों का गुच्छा अंटी में दबा
इत्मिनान से रात में
समाने चली जाती है

उदास भूत और कहीं नहीं
यहीं मिलते हैं--दम साधे हुए
न चुहुलबाजी में गाल बजाते हुए
न चहलकदमी करते हुए
न ही हवाई कलाबाजियां मारते हुए,
चुपचाप पनीली आंखों से
गुलामी का गम बहाते हुए
और हवा की सेज पर लेटे हुए
खुद से फुसफुसाते हुए कि--
हमने खून से आजादी को सींचा था,
सोचा था इस छायादार पेड़ के नीचे
अमन-चैन की बयार बहेगी
साफ-सुथरी आबोहवा में
हथियारों की फसलों के बजाय
गुच्छेदार गुलदार इंसानियत वाले
आदमी उगेंगे
 
गुमसुम भूतों की सफेद आंखों में
अफसोस के काले बादल घुमड़ते हुए
इंडिया गेट के ऊपर पसर जाते हैं
जैसे जनाजे को
कफन से ढँक दिया गया हो
 
आखिर, ऐसा आलम क्यों हैं
भूत खुश क्यों नहीं हैं
चुनिन्दा बड़े लोगों से
जो कमसिन आजादी को नंगी कर
उसे भरपूर भोग रहे हैं
इस बात से बेफिक्र होकर कि
उन्हें शुक्रगुजार होना चाहिये इन भूतों का
जिन्होंने इस योनि से पहले
इस बच्ची को फिरंगी व्यभिचारियों से
निजात दिलाया था

बेशक! आजादी के खबरनामचों से
भूत पीड़ित क्यों हैं?

वे हर बात पर
और मायूस क्यों हैं?

जबकि आजादी के मिसाल बने
धर्माधीश, सियासतदार और सामाजिक गुर्गे
आजादी के साथ
वो सब कर-गुजर रहे हैं
जो जनसाधारण
आजादी का मतलब समझने तक
नहीं कर पाएंगे.