भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ई जो अन्न है / कुमार वीरेन्द्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:40, 12 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार वीरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बोआई के समय देखता

एक भी दाना
खेत से बाहर गिर जाए, उसे उठा
तनि माटी टरका, बाबा खेत में ही तोप देते, और ख़ाली अपने खेत में ही नहीं
कहीं भी देखते, राह, डरार, करहा, बगीचे में, बाँध पर; उठा बग़लवाले खेत में
चाहे वह बैरी का ही क्यों न हो, तोप देते, पूछता, कहते, अरे
एक से इक्कीस होवेगा..., जब कटाई का
समय आता, कवनो-कवनो
खेत के कोन पर

एक-दु मुट्ठी डाँठ छोड़ देते

सोचता, 'कोन पर डाँठ
हरियर, इसलिए छोड़ दे रहे, बाद में काट लेते होंगे'
तनि बड़ा हुआ, एक बार देखा, कई दिनों बाद भी, नहीं काट रहे, लगा, 'भुला गए हैं', याद परवाया
तो कहा, इयाद है, भाई, भुलाया थोड़े हूँ, ऊ तो बस चिरईं-चुरुगुन खातिर छोड़ देता हूँ चकित हो
कहा, अरे, बउराह हो का, कबहुँ घट जाएगा तो चिरइयाँ देंगी खाने को ?', बाबा
सुनते हठात् मुस्कुरा पड़े, कहा, बेटा, ई जो धरती है, इसके बाल
बच्चे, चिरईं-चुरुँग भी हैं, और ई जो अन्न है न, बेटा
इसे खाने से ही नाहीं, खिलाने
से भी आपन

पेट भरता है...!