भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उसे क्या / अरविन्द अवस्थी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:32, 20 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरविन्द अवस्थी }} {{KKCatKavita}} <poem> माना कि आज का युग विज…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माना कि
आज का युग
विज्ञान और प्रौद्योगिकी का है
मोबाइल और इंटरनेट का है
जेठ की गर्म, दुपहरी में
माघ की सुरसुरी और
कड़कड़ाती सर्दी में
फागुन का मज़ा
मिल सकता है
और तो और
बिग-बाज़ार में
सीढ़ियाँ भी नहीं चढ़नी पड़तीं
स्वयं चलती है सीढ़ियाँ
आदमी के लिए
किन्तु इन सबसे
सुमेसर की अम्मा को क्या?

वह तो भरी दुपहरी
सिर पर तसला रखे
बालू, सीमेंट पहुँचाती है,
ठेकेदार की झिड़की सुनती है
और दीवार की छाँव में
अपने लिए स्वर्ग ढूँढ़ती है ।