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कबीर-रहीम और बदलाव-2 / दिनेश कुशवाह

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कितना अजीब समय आ गया है
कि रोने के लिए भी
नहीं बची है कोई गोद
न सिर टिकाने के लिए
कोई कंधा
न ढाढ़स बँधाती कोई आँख
यहाँ तक कि झोंकने के लिए भी
नहीं बचा है कोई भाड़
ऐसे में किस देश जाओगे रहीम!
एक ही जैसे हो रहे हैं
दुनिया के सारे भू-भाग।