भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कमबख्त हिन्दुस्तानी / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 11: पंक्ति 11:
 
उफ़्फ़! और आगे क्यों  नहीं  
 
उफ़्फ़! और आगे क्यों  नहीं  
 
अरे-रे-रे, रुक क्यों गए
 
अरे-रे-रे, रुक क्यों गए
ज़मीन  पर  आँखें गड़ाए क्यों खडे हो  
+
ज़मीन  पर  आँखें गड़ाए क्यों खड़े  हो  
  
 
हाँ, हाँ, कोशिश करो
 
हाँ, हाँ, कोशिश करो

16:03, 18 अक्टूबर 2010 का अवतरण

आगे
थोड़ा और आगे
और, और आगे
उफ़्फ़! और आगे क्यों नहीं
अरे-रे-रे, रुक क्यों गए
ज़मीन पर आँखें गड़ाए क्यों खड़े हो

हाँ, हाँ, कोशिश करो
सिर उठाकर सामने देखो
शाबाश! देखो ही नहीं
क़दम भी आगे बढ़ाओ
 
ओह्! सिर दाएँ-बाएँ क्यों करने लगे
सामने तो खुला रास्ता है
क्यों खुले रास्ते से डर लगता है
देखो! ऐसे करोगे तो...

शाम हो ही चुकी है
अब रात का घुप्प अन्धेरा भी पसरने लगेगा
फिर, कैसे आगे जा सकोगे

आह! फिर, वैसा ही करने लगे
खड़े ही रहोगे
अरे बैठ भी गये
लेकिन, लेटना मत!
च्च, च्च, च्च, लेट गये
पर, सोना मत
हाय! आँखें क्यों बंद कर ली
धत्त! खर्राटे भी भरने लगे

काहिल कहीं के!
अजगर ही बने रहोगे
कमबख़्त हिन्दुस्तानी!


रचनाकाल : 08 अगस्त 2009