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कविता के इलाके में / किरण अग्रवाल

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कविता के इलाके में
पुलिस से भाग कर नहीं घुसी थी मैं
वहाँ मेरा मुख्य-कार्यालय था
जहाँ बैठकर
जिन्दगी के कुछ महत्त्वपूर्ण फैसले करने थे मुझे

यह सच है तब मैं हाँफ रही थी
मेरी आँखों में दहशत थी
पर कोई ख़ून नहीं किया था मैंने
लेकिन मैं चश्मदीद गवाह थी अपने समय की हत्या की
जिसे ज़िन्दा जला दिया गया था धर्म के नाम पर

मैं पहचानती थी हत्यारों को
और हत्यारे भी पहचान गए थे मुझे
वे जो ढलान पर दौड़ते हुए मेरे पीछे आए थे
वह पुलिस नहीं थी
पुलिस की वर्दी में वही लोग थे वे
जो मुझे पागलों की तरह ढूँढ़ रहे थे
जो मिटा देना चाहते थे हत्याओं के निशान

किसी तरह उन्हें डॉज दे
घुस ली थी मैं कविता के इलाके में
और अब एक जलती हुई शहतीर के नीचे खड़ी हाँफ रही थी
जो कभी भी मेरे सिर पर गिर सकती थी

दंगाई मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ तक आ पहुँचे थे
मुझे उनसे पहले ही अपने मुख्य-कार्यालय पहुँचना था
और निर्णय लेना था कि किसके पक्ष में थी मैं
मुझे एक वसीयत लिखनी थी आने वाली पीढ़ी के नाम
और छुपा देना था उसे कविता की सतरों के भीतर
मुझे बनानी थी हत्यारों की तस्वीर
और लिख देने थे उनके नाम और पते