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"कवियों से कह दो / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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बतौर ठोस आदर्श   
 
बतौर ठोस आदर्श   
 
बांचना-आलापना  
 
बांचना-आलापना  
दूभर हो गया है
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दूभर हो गया है!
  
इस तरल दौर में  
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इस तरल दौर में--
 
कवियों से कह दो  
 
कवियों से कह दो  
 
कि वे चाट-मसाले  
 
कि वे चाट-मसाले  

16:52, 3 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण


कवियों से कह दो

तथ्यात्मकता इतनी तरल हो चुकी है
कि उन्हें भावों में समेटना
और समेटकर
बतौर ठोस आदर्श
बांचना-आलापना
दूभर हो गया है!

इस तरल दौर में--
कवियों से कह दो
कि वे चाट-मसाले
की गुमटियां लगा लें

नाटककारों से कह दो
कि वे कोई और धंधा कर लें
यानी, पान-मसाला बेचें
या, पाठशालाओं के गेट पर चूरन

उपन्यासकारों से नहीं कहूंगा
के वे आत्महत्या कर लें,
लिहाजा, वे गाँवों के
खेत-खलिहानों में
खेतिहर मज़दूर बन जाएं
और अपने बच्चों से कह दें
कि वे उन बच्चों से
लंगोटिया याराना निभाएं
जिनमें शनै: शनै:
छात्र-नेता, गुंडा, डान और नेता
बनने के अच्छे लच्छन मौजूद हैं.