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कहीं गीली ज़मीन नहीं कि रोप दूं / वाज़दा ख़ान

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कहीं गीली ज़मीन नहीं कि रोप दूं
कोमलता के पौधे
कि जड़ पकड़ रही मिट्टी
गिर जायेगा मन पेड़ से गिरी
नादान पत्तियों की तरह
भर जायेगा धुंआ पहाड़ों से बहता
नील नदी की उन्नत घाटियों में
हो जायेंगे सुडौल
तितली के पंख वर्जनाओं की एक लम्बी तान
नैतिकता के दौर में अखण्ड कथा की तरह
बांची जाती है
बचा लेगी कुछ ज़मीन
कुछ वर्जनायें आसमान में घूमती हैं
ज़रूर तुम्हें भिगोती होगी
अपवाद नहीं हो कुछ शताब्दियों में
अपवाद नहीं होते
इसी तरह असभ्यतायें भी सभ्य होने
की परम्परा में नैतिकता का पद
ग्रहण करती हैं गढ़ती हैं तमाम सच
जो ग्रह उपग्रह तक में घुले हैं
पक्का कुछ झूठ भी तिरते होंगे
वर्जनाओं के अन्तरिक्ष में
इन्हीं घूमती ब्रह्माण्डीय वर्जनाओं और
असभ्यताओं को एहसास करने के
किसी चौकस क्रम में
नहीं बनती कोई तथाकथित नैतिकता
न रचती है़ कोई उपदेशात्मक आचरण
सदियों से ढंकी मुंदी लगातार चल रही हैं
वर्जनायें सच के समानान्तर.