भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क़बायें तो बदन पर क़ीमती हैं / राज़िक़ अंसारी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:15, 15 जून 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राज़िक़ अंसारी }} {{KKCatGhazal}} <poem>क़बायें...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क़बायें तो बदन पर क़ीमती हैं
मगर क्या दिल भी अंदर क़ीमती हैं

तो कैसे हार को तस्लीम कर लें
अगर दस्तार हैं सर क़ीमती हैं

कई अपने भी शामिल भीड़ में थे
उठा लीजे ये पत्थर क़ीमती हैं

अना, ख़ुद्दारियां, ईमान, इज़्ज़त
बचा के रख ये ज़ेवर क़ीमती हैं

करम फ़रमाईयां हैं दोस्तों की
ये आंसू दीदा ए तर क़ीमती हैं