भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काठी / सन्ध्या सिन्हा

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:36, 1 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सन्ध्या सिन्हा |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राताब्दियन से शिकार हो आइल बानी
तोहार रगड़ल, भोगल,
मसाला जर गइला पर
फेंक देहल काठी अइसन
बकिर हर बेर
तूँ काहें भुला जालऽ कि
मसाला काठिए प चढ़ल होला,
जेकरा एक रगड़ से जर जाला घर
जरि के छार हो जाला
-शहर-के-शहर
ऊ त हमहीं बानी,
जे अपना में आग समेटले
चुपाइल रहीला,
आखिर कुछुओ होखे
हम मेहररुए नू हईं