Last modified on 18 नवम्बर 2011, at 22:39

कुछ काले कोट / कुँअर बेचैन

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:39, 18 नवम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुँअर बेचैन }} {{KKCatNavgeet}} <poem> कुछ काले को...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कुछ काले कोट कचहरी के।

ये उतरें रोज अखाड़े में
सिर से भी ऊँचे भाड़े में
पूरे हैं नंगे झाड़े में

ये कंठ लंगोट कचहरी के।

बैठे रहते मौनी साधे
गद्दी पै कानूनी पाधे
पूरे में से उनके आधे-

हैं आधे नोट कचहरी के।

छलनी कर देते आँतों को
अच्छे-अच्छों के दाँतों को
तोड़े सब रिश्ते-नातों को

ये हैं अखरोट कचहरी के।