भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कौन चुनौती स्वीकारेगा ? / धनंजय सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:23, 20 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धनंजय सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNav...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन की गहरी घाटी में
क्या उतरेगा कोई
जो उतरेगा वह फिर उससे निकल न पाएगा ।

फिसलन भरे, नुकीले पत्थर वाले पर्वत हैं
जो घाटी को सभी ओर युग-युग से घेरे हैं
सूरज रोज़ सुबह आता है शिखरों तक लेकिन
कभी तलहटी तक आ पाते नहीं सवेरे हैं
मत झाँको तुम
इसकी गहरी अन्ध-गुफ़ाओं में
आँखों वाला अन्धकार मन में बस जाएगा ।

कौन चुनौती स्वीकारेगा, किसको फ़ुरसत है
इस घाटी में आकर मन का नगर बसाने की
सूनेपन की गहराई को छूकर देखे फिर
चीर शून्य को प्राणों का संगीत गुँजाने की
निपट असम्भव को सम्भव
कोई, कैसे कर दे
निविड़ रात्रि में इन्द्रधनुष कैसे खिल पाएगा ।