भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्या चाहते हो स्त्री से / अनुराधा सिंह

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:02, 16 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनुराधा सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घोर दुर्भिक्ष में
तुम्हारी किस्म किस्म की भूख का अन्न बनी
दुर्दिन में सुख की स्मृति
वीतराग में विनोद
ऐसे बसने लगी जीवन के एक कोने में तुम्हारी स्त्री

तुम्हारे घाव पर छाला थी
अपने द्रव से बचाए तुम्हारा प्रदाह
तुम पीड़ा का हेतु समझते रहे उसे
छाला फोड़ने से घाव खुलता है, बात इतनी सी थी

तुम लिखना चाहते थे कविता
वह स्याही बन फैल गयी शिराओं में
सबने कहा, वाह! खून से लिखते हो
तुमने प्रेम कविता सुनाई
वह बन गयी कान
और फिर आँख बन कर रो दी
कि कहीं नहीं था उसका नाम

दुनिया हिली तो
नींव थामे रही तुम्हारी
बादल फटे मज़बूत छाता बन गयी
भीगती रही अपनी ही देह के नीचे
नहीं छोड़ी ख़ुद के लिए एक आश्वस्ति
तुमने भी कट्टा और बीघा में नापी उसकी कोख

वह हर भूमिका में तुम्हारे भीतर छिपा
प्रेमी ढूँढ़ती है
तुम जाने क्या क्या चाहते हो स्त्री से