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ख़ाली-ख़ाली लम्हे / मणिभूषण सिंह
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बढ़े हुए बेतरतीब झंखाड़ में,
क़दम-ब-क़दम
चिपकते मकड़ियों के जाल
चेहरे से पोंछते बढ़ना,
साँझ के धुँधलके का
सीना चाक करना,
रात की अँधेरी वादियों में
दाख़िल होना!
सारी ख़ुदाई नियामत खोकर,
रेशमी रात की बेरंग रोशनी में
मसानी सन्नाटे के बीच
मसनवी की मसलहत खोजना
और जीस्त के तसव्वुफ़ से
ख़्वाबगाह का ख़ालीपन भरना।
ख़लक में पैबस्त
बातिन को नुमायाँ करते
ये ख़ाली-ख़ाली लमहे
कितने ख़ाली होते हैं!