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गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्‍त बहुतेरा पड़ा है / हरिवंशराय बच्चन

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गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्‍त बहुतेरा पड़ा है।


सख्‍़त पंजा, नस-कसी चौड़ी कलाई

और बल्‍लेदार बाहें,

और आँखें लाल चिनगारी सरीख़ी,

चुस्‍त औ' सीखी निगाहें,

हाथ में घन और दो लोहे निहाई
पर धरे तो, देखता क्‍या;

गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्‍त बहुतेरा पड़ा है।


भीग उठता है, पसीने से नहाता

एक से जो जूझता है,

ज़ोम में तुझको जवानी के न जाने

ख़ब्‍त क्‍या-क्‍या सूझता है,

या किसी नभ-देवता ने ध्‍येय से कुछ
फेर दी यों बु‍द्धि तेरी,

कुछ बड़ा तुझको बनना है कि तेरा इम्‍तहाँ होता कड़ा है।

गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्‍त बहुतेरा पड़ा है।


एक गज़ छाती मगर सौ गज़ बराबर

हौसला उसमें, सही है;

कान करनी चाहिए जो कुछ तजुर्बे-

कार लोगों ने कही है;

स्‍वप्‍न से लड़स्‍वप्‍न की ही शक्‍ल में हैं

लौह के टुकड़े बदलते,

लौह-सा सा वह ठोस बनकर है निकलता जो कि लोहे से लड़ा है।

गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्‍त बहुतेरा पड़ा है।


धन-हथौड़े और तौले हाथ की दे

चोट अब तलवार गढ़ तू,

और है किस चीज़ की तुझसे भविष्‍यत

माँग करता, आज पढ़ तू,

औ' अमित संतानको अपनी थमा जा
धारवाली यह धरोहर,

वह अजित संसार में है श्‍ब्‍द का खर खड्ग लेकर जो खड़ा है।

गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्‍त बहुतेरा पड़ा है।