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गांधी (5) / महेन्द्र भटनागर

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आज हमारी श्वासों में जीवित है गांधी,
तम के परदे पर मन के ज्योतित है गांधी,
जिससे टकरा कर हारी पशुता की आँधी !

सिहर रही हैं गंगा, यमुना, झेलम, लूनी,
प्राची का यह लाल सबेरा लख कर ख़ूनी,
आज कमी लगती जग को पहले से दूनी !

पर, चमक रही है मानव आदर्शों की ज्वाला,
जिसको गांधी ने तन-मन के श्रम से पाला,
हर बार पराजित होगा युग का तम काला !


बुझ न सकेगी यह जन-जीवन की चिनगारी,
बढ़ती ही जाएगी इसकी आभा प्यारी,
निश्चय ही होगी वसुधा आलोकित सारी !
 1949