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घबराहट / भी० न० वणकर / मालिनी गौतम

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मेरा घर है,
गाँव है,
प्राचीन देश है,
मैं विश्व नागरिक हूँ,
विशाल समुद्र है,
खुला आकाश है,
परन्तु, मेरा एक प्रश्न अलग है सबसे
जिसकी अनुगूँज
मौन के सागर तले भी
चैन नहीं लेने देती मुझे,

गले में घुटते
लावारिस शब्दों को
मैं निगल जाता हूँ
और अन्दर-अन्दर
अकेला-अकेला
भड़भड़-भड़भड़ जलता हूँ,

ऊँचे शिखरों के हिस्से में ही
गहरी खाईयाँ होती हैं न?
सन्दर्भ विहीन
ये खाली-खाली शब्द
बाँझ आदर्शों की तरह
मनुष्य को आखिर क्या देंगे?

मन होता है कि
बन्द कर दूँ लिखना
और गाँव के आखिरी छोर पर
बने झोंपड़े में
भूख से बिलखते शिशु को
धीरे-धीरे झूला झुलाते हुए
प्यार से गाऊँ
ला ला.... ला ला.... ला
ला ला... ला ला.... ला
  
अनुवाद : मालिनी गौतम