भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चंद रुबाइयात / अमजद हैदराबादी

Kavita Kosh से
चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:19, 17 जुलाई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: हर ज़र्रेपै फ़ज़ले-किब्रिया<ref>ईश्वरीय कृपा</ref> होता है। इक चश्मे-...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर ज़र्रेपै फ़ज़ले-किब्रिया<ref>ईश्वरीय कृपा</ref> होता है।

इक चश्मे-ज़दन में<ref>पलक मारते</ref> क्या से क्या होता है॥

असनाम दबी ज़बाँ से यह कहते हैं--

"वो चाहे तो पत्थर भी खु़दा होता है॥


हर गाम पै चकरा के गिरा जाता हूँ।

नक़्शे-कफ़े-पा बनके मिटा जाता हूँ॥

तू भी तो सम्भाल मेरे देनेवाले!

मैं बारे-अमानत में दबा जाता हूँ॥


इस जिस्म की केचुली में इक नाग भी है।

आवाज़-शिकस्ता दिल में इक राग भी है॥

बेकार नहीं बना है, इक तिनका भी।

खामोश दियासलाई में इक आग भी है॥



शब्दार्थ
<references/>