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चोर के प्रति / मुकुट बिहारी सरोज

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चोरी कर ले गया बावरे अपने कवि की, पीड़ित कवि की
ऐसे कवि की जिसने तेरा दर्द गीत के स्वर में गाया
जिसकी भरी जवानी में भी स्वप्न एक रंगीन न आया ।

जिसने चोरी कभी नहीं की तेरे जलते अरमानों से
जिसने मुँह न चुराया अब तक, दुखियों के गीले गानो से
ऐसे कवि की कुटिया में घुसते, लज्जा तो आई होगी
कदम-कदम पर दबी-ढँकी बैठी विपन्नता तुझे देख कर
बेचारी बेहद शरमाई तो होगी ।

छूते छूते मेरा आँसू भरा खजाना एक बार रोया तो होगा
तय है तेरे हाथों में आते ही सपना हिलकी भर-भर रोया होगा ।

लेकिन तू नासमझ अर्थ का दीवाना क्या लोभी निकला
कवि की चोरी करते-करते तेरा अन्तस ज़रा न पिघला
और न गिरते गिरते सम्हला कुटिया को तो देख लिया होता ओ पापी !
दीवारों का मौन, फर्श की पहिचानी-सी घिरी उदासी
लेकिन तू तो पत्थर निकला और न गिरते-गिरते सम्हला ।

क्योंकि अबोध दुधमुँहों के तू आँसू पीकर आया होगा
अधनंगी पत्नी के घावों को खुद सी कर आया होगा

तू तो आता नहीं मगर जठराग्नि तुझे ले आई होगी.
भूख तुझे ले आई होगी, प्यास तुझे ले आई होगी ।
तेरे अरमानो का धारक सोने की लंका में होगा
स्वर्ग-नरक के दो पाटों के बीच बड़ी शंका में होगा

सम्भव है तेरे जीवन की पहली-पहली चोरी होगी
दृढ़ता से कह सकता हूँ मैं इससे पहले तेरी बुद्दि अछूती होगी, कोरी होगी ।

इससे पहले तू रामायण झूम-झूम कर गाता होगा
मन्दिर-मन्दिर में जा-जाकर अपनी व्यथा सुनाता होगा
सन्तोषो से अपनी अग्नि बुझाता होगा ।

कुछ भी हो पर तेरा निश्चय बहुत बुरा था, बुरा किया है
तूने अपने ही जनकवि की मस्ती तक को चुरा लिया है
इतना तो विश्वास किया होता तूने मेरी कविता पर
मैं लिखवा लेता मुक्त हँसी के छन्द आँसुओं की सरिता पर

आज नहीं तो कल सपनों को नंगे पैरों आना होगा
जो कुछ भी रच देता है वह इन्सानों को गाना होगा
लेकिन तूने अपने कवि को आकाशी माया ही जाना
बिलकुल ही झूठा अनुमाना ।

तूने ही मजबूर कर दिया मैं अब तुझको एक लुटेरा-लम्पट कह दूँ
तूने ही मजबूर कर दिया मैं तुझको अब एक छिछोरा-कायर कह दूँ
अपने पर तो थोड़ा-सा विश्वास किया होता ओ पागल
मेरे बदले तू ही लेता देख धरा की छाती घायल

मर्दानों की तरह बदलता अपने दोहन की गाथाएँ
विद्रोही की तरह निकलता बाँहों में लेकर ज्वालाएँ
इतना ही तो होता तू मर जाता लड़ते-लड़ते रण में
लेकिन तेरा रक्त जगा जाता ज्वालामुखी धरती के सोये कण-कण में

कोई कहता मुक्ति-दूत था कोई कहता वह सपूत था
कितना प्यारा दिन होता जब दीवानों की टोली तुझको शीश झुकाती
आने वाली पीढ़ी तुझ पर फूल चढ़ाती

लेकिन आज कलंकित कर दी पौरुष की वज्रों सी छाती
तूने आज बुझा डाली है अपने कर से अपनी बाती
अंधियारी के आशिक़ ! मेरा दीप बुझाना नहीं सरल था
उसमे नेह नाम को ही था उसमे बेहद भरा गरल था ।

अच्छा किया पीर दे डाली और लबालब कर दी प्याली
लेकिन ज़रा देख भी लेना चुपके-चुपके पीछे-पीछे
मैं तूफ़ान बना चलता हूँ या चलता हूँ आँखे मीचे