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छाती / कुमार वीरेन्द्र

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वे इसी देश के नागरिक हैं
लेकिन घर जा नहीं सकते

जाना चाहें
लाठियाँ बरसाई जाती हैं, किसी तरह
बच निकले, सड़क हादसे में मारे जाते हैं; वे इसी देश के नागरिक हैं, जिसकी धरती पर मनुष्य
उत्पत्ति के बहुत पहले से बहती रही हैं नदियाँ, लेकिन प्यासे हैं; भूखे हैं जबकि वे एक ऐसे देश
के नागरिक भी हैं, जहाँ हर साल लाखों टन अन्न सरकारी गोदामों में सड़ जाता
है; वे नागरिक हैं उस देश के, जहाँ उनके वोटों से सरकार बनती है
लेकिन बन्धुआ बनकर रह गए हैं, कोई भी प्रमाण-पत्र
अधिकार का सबूत नहीं दे पा रहा; वे
अपने देश में ही हैं और
इतनी दूर हैं

अपनों से कि बतियाते हैं तो आँखों
का पानी आँखों में ही सूख जाता है

टपक नहीं पाता
उनके जीवन में कम होता जा रहा है पानी
कम होता जा रहा है रक्त; एक औरत बार-बार, छाती अपने नन्हे को धराती है, वह धरकर भी
रोते जा रहा, एक औरत आती है अपनी छाती पिलाने को कहती है, वह औरत दे देती है नन्हा
बग़ैर पूछे कि आपको कोरोना तो नहीं है न; नन्हा पी रहा है, पीते सोने लगा है
यह दृश्य देख आपस में बतियाते हैं कुछ मज़दूर, ‘जाने हम कैसे
देश के नागरिक हैं, हमें तो ऐसे देश का नागरिक
होना चाहिए, जहाँ सरकार हो ऐसी
माँ जैसी हो कि रोए
परजा तो

उसकी छाती
फटने लगे !’