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जहाँगीरपुरी की औरतें : १ / अनिता भारती

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जहाँगीरपुरी की औरतें
मेहनत की धूप में
तपकर
फीकी हो चुकी अरगनियों पर

झूलती कपड़ों- सी
लचक-लपक-झपक
लम्बे-लम्बे डग भरती
जल्दी-जल्दी
घरों में, दुकानों में, कारखानों में
काम करने के लिए खप जाती हुई

किसी दिन
मुश्किल से मिली छुट्टी में
कभी-कभी अपने नन्हें मुन्नों को
गोद में लादे
छाती से चिपकाये, उंगली थामे
खुशी से गालों में हजारों गुलाब समेटे
ले जाती हैं दिखाने
मैट्रो में लालकिला या कुतुब मीनार


जहाँगीरपुरी की औरतें
रोटी सेंकने के बाद
बुझे चूल्हे सी
मन में अंगार दबाये धधकती
हाथ लगाओ तो जल जाओ

जहाँगीरपुरी की औरतें
बार-बार धुलने से फीकी हुई
गली साड़ी सी
जो बार- बार सिलने पर भी
फट-फट पडे

जहाँगीरपुरी की औरतें
सुबह-सुबह
ताजा सब्जी- सी दमकती
पर शाम होते ही
मुरझायी बासी सब्जी- सी
जिनकी कीमत शाम होते होते
कम हो जाती है

जहाँगीरपुरी की औरतें
सर्दियों की रात में
सुनसान पडी सड़क की तरह
जिसमें चलना न चाहे कोई

पर वे चलती है उन पर
निडर बेखौफ
पार करती है उन्हें
हँसते-हँसते
जिन्दगी के अन्त से बेखबर