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जहाँ -जहाँ मुझको मिली / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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105
जहाँ -जहाँ मुझको मिली , तेरे तन की छाँव ।
देवालय समझा उसे , ठिठके मेरे पाँव ।।
106
गोमुख से बहती रही, अब तक पावन धार।
आज समझ आया मुझे, वह था तेरा प्यार ॥
107
दरिया उमड़ा प्रेम का, शब्द हुए हैं मूक ।
कहना था जो कब कहा, भाषा जाती चूक ॥
108
लौटे छलिया वे सभी, आए धरकर भेस।
मन-द्वारे तुम आ गए ,रहना अब इस देस॥
109
जितने भी थे गाँठ में, बँधे हुए इल्ज़ाम।
थोपे हम पर वे सभी, जो थे उनके नाम ।।
110
बँधी गले में ही रही, रिश्तों की ज़ंजीर ।
किसने कब समझी कभी,तन की ,मन की पीर।।
111
दो पल हमको थे मिले, दो पल और उधार।
भाग -दौड़ में खो गए,जीवन के दिन चार।।-0-
112
रोम-रोम में बस गई ,उसकी ही तस्वीर।
अनजाने ही मिट गई,युगों- युगों की पीर।
113
माथा उसका चाँद -सा, नयनों में आकाश।
अधरों ने जो छू दिया, कटा पीर का पाश।।
114
रब देना मुझको दुआ, सदा रहूँ मैं पास।
सारे दुख मैं पी सकूँ, उनको देकर हास।।
111
वे वैठे परदेश में ,मन अपना बेचैन ।
दिन कट जाता काम में, काटें कैसे रैन।।
112
भावों की सूखी नदी,तट भी हैं हलकान।
दो बूँदें दो प्यार की,बच जाएँगे प्रान ।।
113
घायल तन, मन मैं लिये, घूम लिया संसार ।
तुम ऐसे घायल मिले,मिला मुझे उपचार ॥
114
आँसू पीकर जी रही, मेरे मन की पीर ।
एक लेखनी ने लिखी, दोनों की तक़दीर ॥
115
जीवन की मुस्कान का,आँसू है इतना इतिहास।
समझ आचमन पी लिये, जितने तेरे पास ॥