भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जो शख़्स मुद्दतों मिरे शैदाइयों में था / शकीला बानो

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:46, 9 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शकीला बानो }} {{KKCatGhazal}} <poem> जो शख़्स मुद...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जो शख़्स मुद्दतों मिरे शैदाइयों में था
आफ़त के वक़्त वो भी तमाशाइयों में था

उस का इलाज कोई मसीहा न कर सका
जो ज़ख़्म मेरी रूह की गहराइयों में था

वो थे बहुत क़रीब तो थी गर्मी-ए-हयात
शोला हुजूम-ए-शौक़ का पुरवाइयों में था

कोई भी साज़ उन की तड़प को न पा सका
वो सोज़ वो गुदाज़ जो शहनाइयों में था

बज़्म-ए-तसव्वुरात में यादों की रौशनी
आलम अजीब रात की तन्हाइयों में था

उस बज़्मा में छिड़ी जो कभी जाँ-दही की बात
उस दम हमारा ज़िक्र भी सौदाइयों में था

कुछ वज़-ए-एहतियात से ‘बानो’ थे हम भी दूर
कुछ दोस्तों का हाथ भी रूस्वाइयों में था