Last modified on 6 सितम्बर 2013, at 06:59

ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल / ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:59, 6 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ग़ुलाम मुर्तज़ा राही }} {{KKCatGhazal}} <poem> ठ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
ये सख़्त-राह भी अब इख़्तियार करता चल

सफ़र की रात है हर गाम एहतियात बरत
पलट पलट के अंधेरों पे वार करता चल

लिए जा काम तू अपनी फ़िराख़-दस्ती से
क़दम क़दम पे मुझे ज़ेर-ए-बार करता चल

इधर उधर जो खड़े हो गए हैं तेरे लिए
उन्हें भी अपने सफ़र में शुमार करता चल

किसी ठिकाने पे तुझ को अगर पहुँचना है
तो नक़्श-ए-पा को मिरे ए‘तिबार करता चल