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तर्पण / चंद्रभूषण

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जमीन छोड़ी होती तो

इतने कलेस के बाद

ज्यादा सोचने की जरूरत न पड़ती

खींचकर खर्रा मुंह पर मारता और कहता

ले लो इसे जहां लेना हो

अपन तो चले खेती करने


पैसे छोड़े होते

कोई काम ही सिखा दिया होता

तो यहीं दफ्तर के पास

अपना धंधा खड़ा कर देता

कुत्ते की तरह दुबारा शकल दिखाने

इधर तो न आता


अरे कुछ नहीं छोड़ा तो

अकल ही दी होती दुधारी तलवार

कि यहीं पड़ा-पड़ा धूल की रस्सी बंट देता

चित कर डालता खिलाड़ियों को

उनके ही खेल में


जीने भर को दिमाग दिया, मन दिया

सत्य, सहृदयता, ईमानदारी दी-

पर यह भी तो नहीं कह सकता छाती ठोंककर

कि कहूं तो किस लायक हूं

जो कोई रुककर ये चीमड़ बातें सुनेगा


हर पिटाई के बाद ऐसे ही किलसकर

याद करता हूं तुम्हें ओ पिता

देता हुआ खुद को दिलासा

कि न कम न अधिक

ठीक इतना ही छोड़कर जाऊंगा

मैं भी अपने बेटे के लिए


ताकि हर तीसरे दिन

वो ऐसे ही भुनकर मुझे गालियां दे

और ज़्यादा नहीं तो उसके जीते जी

मेरे साथ तुम्हारा भी तर्पण होता चले


मैं तुमसे लड़ना चाहता हूं प्लास्टिक के सस्ते मुखौटे सा गिजगिजा चेहरा आंखों में सीझती थकान बातें बिखरी तुम्हारी हर्फों तक टूटे अल्फाज़ तुमसे मिलकर दिन गुजरा मेरा सदियों सा आज

इस मरी हुई धज में मेरे सामने तुम आए क्यों उठो खलनायक, मेरा सामना करो मैं तुमसे लड़ना चाहता हूं।

इतनी नफरत मैंने तुमसे की है जितना किया नहीं कभी किसी से प्यार इस ककड़ाई शक्ल में लौटे ओ मेरे रक़ीब तुम्हीं तो हो मेरे पागलपन के आखिरी गवाह

मिले हो इतने सालों बाद वह भी इस हाल में कहो, तुम्हारा क्या करूं।

क्यों आखिर क्यों मैंने तुमसे इतनी नफरत की कुछ याद नहीं जो था इसकी वजह- एक दिन कहां गया कुछ याद नहीं आकाशगंगा में खिला वह नीलकमल रहस्य था, रहस्य ही रहा मेरे लिए

दिखते रहे मुझे तो सिर्फ तुम सामने खड़ी अभेद्य, अंतहीन दीवार जिसे लांघना भी मेरे लिए नामुमकिन था।

फिर देखा एक दिन मैंने तुम्हें दूर जाते हुए वैसे ही अंतहीन, अभेद्य, कद्दावर- जाते हुए मुझसे, उससे, सबसे दूर

और फिर देखा खुद को धीरे-धीरे खोते हुए उस धुंध में जहां से कभी कोई वापसी नहीं होती।

ऐसे ही चुपचाप चलता है समय का भीषण चक्रवात दिलों को सुस्त, कदों को समतल करता हुआ चेहरों पर चढ़ाता प्लास्टिक के मुखौटे जेहन पर दागता ऐसे-ऐसे घाव जो न कभी भरते हैं न कभी दिखते हैं

धुंध भरे आईनों में अपना चेहरा देख-देखकर अब मैं थक चुका हूं इतने साल से संजोकर रखी एक चमकती हुई नफरत ही थी खुद को कभी साफ-साफ देख पाने की मेरी अकेली उम्मीद- तुम दिखे आज तो वह भी जाती रही।

नहीं, कह दो कि यह कोई और है तुम ऐसे नहीं दिख सकते- इतने छोटे और असहाय उठो, मेरे सपनों के खलनायक उठो और मेरा सामना करो

मेरे पागल प्यार की आखिरी निशानी- मौत से पहले एक बार मैं तुमसे लड़ना चाहता हूं।


चलना चाहिए एक शाम दफ्तर से तुम लौटते हो और पाते हो कि सभी जा चुके हैं

अगल- बगल तेज घूमती रौशनियाँ हैं घरों पर छाई पीली धुंध के ऊपर अँधेरे आसमान में आखरी पंछी परछाइयों की तरह वापस लौट रहे हैं

तुम किसी से कुछ भी कहना चाहते हो मगर पाते हो कि सभी जा चुके हैं

तुम्हारे पास कोई गवाह कोई सुबूत है? आख़िर कैसे साबित करोगे तुम कि सबकुछ जैसा हो गया है उसके जिम्मेदार तुम नहीं हो?

निर्दोष होने के भावुक तर्क अपने फटे हुए ह्रदय का बयान- तुम सोचते हो यह सब तुम्हारे ही पास है?

बिल्कुल खाली अंधियारी सीढ़ियों पर देर तक अपनी सांसों की आवाज सुनना... इस एहसास के साथ कि इतने करीब से किसी और की साँसें सुनने का वक्त अब जा चुका है

दुनिया में अबतक हुई बेवफाइयों के सारे किस्से एक-एक कर तुम्हारी मदद को आते हैं कैसी सनक मिजाजी कि उन्हें भी तुम पास फटकने नहीं देते

आख़िर किसलिये किस पाप के लिए तुम दण्डित हो- पूछते हो तुम और पाते हो कि अभी-अभी यह सवाल किसी और ने भी पूछा है

चौंको मत क्षितिज के दोनों छोरों के बीच तनी सवालों की यह एक धात्विक शहतीर है जो थोड़ी-थोड़ी देर पर यूं ही हवाओं से बजती रहती है

वन मोर चांस प्लीज- किसी चुम्बन की फरियाद की तरह तुम जीने के लिए एक और जिंदगी माँगते हो और फिर बिना किसी आवाज के देर तक धीरे-धीरे हँसते हो

हँसते हैं तुम्हारे साथ गुजरे जमानों के अदीब

नाभि से उठ कर कंठ में अटका धुआं निगलते हुए शायद उन्हीं को सुनाते हो तुम-

सब चले गए फिर हमीं यहाँ क्यों हैं बहुत गहरे धंस गयी है रात हमे भी कहीँ चलना चाहिए


स्टेशन पर रात रात नहीं नींद नहीं सपने भी नहीं न जाने कब ख़त्म हुआ इन्तजार ठण्डी बेंच पर बैठे अकेले यात्री के लिए एक सूचना महोदय जिस ट्रेन का इन्तजार आप कर रहे हैं वह रास्ता बदलकर कहीँ और जा चुकी है

हो जाता है, कभी-कभी ऐसा हो जाता है श्रीमान तकलीफ की तो इसमे कोई बात नहीं यहाँ तो ऐसा भी होता है कि घंटों-घंटों राह देखने के बाद आंख लग जाती है ठीक उसी वक्त जब ट्रेन स्टेशन पर पहुँचने वाली होती है

सीटी की डूबती आवाज के साथ एक अदभुत झरने का स्वप्न टूटता है और आप गाड़ी का आखरी डिब्बा सिग्नल पार करते देखते हैं

सोच कर देखिए ज़रा ज्यादा दुखदायी यह रतजगा है या कई रात जगाने वाली पांच मिनट की वह नींद

और वह भी छोड़िये इसका क्या करें कि ट्रेनें ही ट्रेनें, वक्त ही वक्त मगर न जाने को कोई जगह है ना रुकने की कोई वजह

ठण्डी बेंच पर बैठे अकेले यात्री के लिए एक सूचना ट्रेनें इस तरफ या तो आती नहीं, या आती भी हैं तो करीब से पटरी बदलकर कहीँ और चली जाती हैं

या आप का इन्तजार वे ठीक तब करती हैं जब आप नींद में होते हैं या सिर्फ इतना कि आपके लिए वे बनी नहीं होतीं फकत उनका रास्ता आपके रास्ते को काटता हुआ गुजर रहा होता है


रात जैसा दिन काले सलेटी आकाश के बीचो बीच कलौंछ कत्थई लाल अँधेरा फेंकता चाक जितना बड़ा कटे चुकन्दर जैसा सूरज गीले चिपचिपे ग्रह का बहुत लम्बा बैंगनी सियाह दिन देख रहे हो तुम उसे यहाँ से देख रहा है वह तुम्हे वहाँ से रह गये तुम रह गये भाई इसी इत्मीनान में कि बीच में कसे हैं इतने सारे प्रकाश वर्ष जान नहीं पाये तुम ना ही तुम्हारे साथ खड़ा मैं- कब आया कब बीत गया इस ग्रह पर भी बैंगनी सियाह दिन खीजते रहे यहाँ हम ठोंकते-रगड़ते अपना माथा खोजते रहे हबड़-धबड़ मेज़ की दराज़ों में डिस्पिरिन-सेरिडॉन पता नहीं चला कि कब हुआ अपना भी सूरज चाक से बड़ा चुकन्दर सा कत्थई कलौंछ मैंने कहा सुनते हो भाई, ओ दूरबीन वाले बचे हैं अब यहाँ माथा रगड़ते सिर्फ़ हम दो जन बाकी सब गिर गये कत्थई लाल अँधेरे में पता नहीं चला कि चुपचाप आये एक और ग्रह के बोझ से कब हुई पृथ्वी इतनी भारी कि कक्षा से टूट कर गिरी चली जा रही है अनन्त अँधेरी रात में नीचे, नीचे.. .. और नीचे


शबे फुरकत बहुत घबरा रहा हूँ....


सितारों से उलझता जा रहा हूँ शबे फुरकत बहुत घबरा रहा हूँ.... एक झटके में कुछ लाख साल बढ गयी उम्र एक क्षण मे पूरी जिंदगी याद आ गयी स्वास्थ्य कैसा है, पूछा बुजुर्ग साथी ने फिर कहा, यह बात तो आपको मुझसे पूछनी चाहिऐ। देखता रहा मैं उनके चहरे में मानस पिता का चेहरा फिर झेंपते हुए कहा, आप तो अटल हो पर्वत की तरह- जिस पर किसी का बस नही,उसी का बस आप पर चले तो चले। हाल मेरा ही पूछो,लहरों में थपेडे खाते हुए का बोले, यह तो चलते रहना है,जब तक जीवन है फिर चुप हो गए यह सोचकर कि कहीं दुःखी तो नही कर रहे मुझे। एक साथी ने कहा कभी उधर भी आयिये मैने कहा,बारह साल से सोच रहा हूँ,चार छह दिन मिले तो कभी आऊं दिल्ली की तीखी धूप मे उन्होने पसीना पोंछा सुरती होंठो मे दबाई और हिप्नोटिक आंखो से अपनी मेरे डूबते दिल को थामते से बोले एक दिन,एक घंटे के लिए भी आइये,लेकिन आइये। फिर एक साथी ने बातों बातों में मुझे चम्पारन घुमा दिया गंडक के पानी से लदी तराई वाला चम्पारन जहाँ हाथ भर खोदने से पानी निकल आता है जहाँ दो सौ वर्ग किलोमीटर वाले जमींदार रहते हैं और जहाँ से भागते हैं हर साल हज़ारो लोग देस कुदेस में खटकर जिंदगी चलाने। तेज़ रफ़्तार जिंदगी की गाड़ी का बम्फर पकड़े रस्ते की रगड़ खाता मैं ठिठक कर देखता रहा दस मिनट का चम्पारन और अपने सामने खड़ा हंसता हुआ एक आदमी जो जिस जमीन पर खड़ा होता है वहीं पर हरियाली छा जाती है मेरे मन के भीतर से कोई पूछता है भाई, इन बारह वर्षों मे हम दोनो कहॉ से कहॉ पंहुचे कितना आगे बढ़ा आन्दोलन और कितनी आगे बढ़ी नौकरी बताने को ज्यादा कुछ है नहीं इतिहास में कौन कब कहॉ पंहुचता है? क्या है पैमाना,जिस पर नापा जाय कि कौन कहॉ पंहुचा? पैमाने को तय करने वाला भी है कौन ? फिर सोचता हूँ,किन चीजों से नापी जायेगी मेरी उम्र कोई ओहदा,कुछ पैसे,कोई गाड़ी,कोई घर, कुछ मंहगे समान या फिर कुछ साल जो बहुत घरों में बहुत लोगों का सगा होकर गुजरे? बहुत तकलीफदेह है रैली के बाद घर लौटना- रिश्तों के दो अर्थों मे होकर दो फाड़। शबे फुरकत बहुत घबरा रहा हूँ सितारों से उलझता जा रहा हूँ...