भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तीरगी अब तो हमें रोशनी सी लगती है / मोहम्मद इरशाद
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:58, 11 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मोहम्मद इरशाद |संग्रह= ज़िन्दगी ख़ामोश कहाँ / म…)
तीरगी अब तो हमें रोशनी सी लगती है
ज़िन्दगी आज हमें ज़िन्दगी सी लगती है
नस्ले आदम के लिए जो भी फना होता है
मौत क्यूँ उसकी हमें ख़ुदकुशी सी लगती है
कैसे कह दूँ कि फरिश्ता है वो देखो उसको
उसकी फितरत तो हमें आदमी सी लगती है
बन के साया जो हमेशा ही मेरे साथ रहा
उसकी सूरत क्यूँ मुझे अजनबी सी लगती है
होश में आएँ तो फिर उन से ज़रा बात करें
उनकी हालत तो अभी बेख़ुदी सी लगती है
दो कदम चल तो सही काँटों पे ‘इरशाद’ कभी
ज़िन्दगी कितनी तुझे मख़मली सी लगती है