भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुमसा कोई कभी ना देखा / सुरेन्द्र सुकुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:28, 17 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेन्द्र सुकुमार |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमसा कोई कभी ना देखा।
जैसे मुद्रिका में नगीना देखा।

देख कर रूप तुम्हारा गोरी,
सूर्य के भाल पसीना देखा।

जब भी तुम नहा कर निकलो,
जून में सावन का महीना देखा।

जब भी जाता हूँ यार, मन्दिर में,
वहीं मक्का औ’ मदीना देखा।

क्या गजब की यार, लहरें थीं,
डूबता हुआ इक सफ़ीना देखा।