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दिन ऊंगत है रोज़ ढरत है / महेश कटारे सुगम
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दिन ऊंगत है रोज़ ढरत है
साल जात का देर लगत है
सुख के दिना अगर होवें तौ
सालन कौ नईं पतौ चलत है
दुःख कौ समऔ कठन है भैया
बज्जुर बैरी जान परत है
हँस कें झेलौ सुख तकलीफें
जीवन में सब लगौ रहत है
माया-मोह होत है ऐसौ
जीवे सें मन कितै भरत है
सुख हम भोगें दुःख को सैहै
बात सुगम खूबई समझत है