Last modified on 24 मई 2012, at 10:25

देश छूट जाता है / मधु गजाधर

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:25, 24 मई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधु गजाधर }} {{KKCatKavita}} {{KKCatMauritiusRachna}} <poem> देश छ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

देश छुट जाता है,
बाहरी रूप से,
मगर देश नहीं छुटता
अंतर्मन से
क्यों होता है ऐसा
सिर्फ हमारे साथ,
हम भारतीयों के साथ,
किस्मत की हवा जहाँ भी ले जाए हमें,
धरती का कोई भी कोना हो,
कैसे भी लोग हों,कोई भी भाषा हो,
हम कुछ न कुछ कर के,
छुपा कर, चुरा कर, दबा कर,
और कलेजे से लगा कर,
अपना भारत,
अपने साथ ले आते है,
और वो भारत,
कभी हिंदी, पंजाबी, तमिल, तेलुगु, गुजराती, मराठी में
बतियाता है ,
तो कभी,
हींग के तडके में ,
रासम के मसाले में ,
आलू मूली के परांठों में ,
खस्ता कचोरियों में ,
अचार के मसालों में
गंधाता है,
और कभी
आरती के सुर में,
सतनाम के जाप में ,
वैदिक मन्त्रों के कर्ण नाद में ,
छट,करवाचौथ,वट सावित्री,
या अन्नंत चौदस की कथा में
गुंजाता है ,
देश छुट जाता है ,
पर देश नहीं छुटता,
हाँ भारत देश नहीं छुटता..
कभी नहीं छुटता,
शायद इसलिए की
भारत कोई देश नहीं है ,
भारत कोई जमीन का टुकड़ा नहीं है
भारत भोगोलिक सीमाओं में बंधा
कोई मानचित्र नहीं है ,
भारत तो एक भावना है ,
भारत तो एक आत्मा है ,
भारत तो साँसें है ,
भारत तो प्राण है ,
और इसीलिए
देश छुट जाता है ,
पर देश नहीं छुटता ,
अंतर्मन से ,
हाँ भारत देश नहीं छुटता
कभी नहीं छुटता
और इस देश का वासी
जीवन की अंतिम घडी में भी
बस यही मांगता है
उस मालिक से,
अगला जनम मोहे भारत में ही दीजौ ...