भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निर्मोही जग -हाइकु / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:35, 16 अप्रैल 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ }} [[Categ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

121
निर्मोही जग
सदा पीर ही बाँटे
सबको काटे ।
122
प्राणों का पंछी
अकेला उड़ चला
साँझ हो गई ।
123
क्रौंच सा मन
व्यथा-बाण-आहत
करो जतन ।
124
सुधा कानों में
घोलते हैं शिशु के
तुतले बोल ।
125
इन नैनों से
आज अमृत चुआ
ये कैसे छुआ ?
126
माथा तुम्हारा
धरा पर चाँद-सा
उजाला किए ।
127
नैन मृगी से
छलके हैं जबसे
अमृत पिए ।
128
मन का तम
मिटाते रहे तेरे
मन के दिए ।
129
होंठों से झरे
पाटल से ये बोल
सौरभ -भरे ।
130
कोई न भाव
ठहरता आकर
मन के गाँव
131
हमको मिले
 अधूरे ही सपने
न थे अपने ।
132
धोखा दिया क्यों
हम तुम्हारे कभी
मीत नहीं थे ।
133
मिली न पाती
संदेसा दे गया था
तेरा ये मन ।
134
मुझे बरोसा
तुम पर इतना
नभ जितना ।
135
मुझे वर दो
आँचल में अपना
दुख भर दो ।
136
तुम्हारे दर्द
अँजुरी से पी लूँगा
युगों जी लूँगा ।
137
याद करूँ मैं
तुमको कैसे , जब
भूला ही नहीं ।
 138
किसने देखा
कल कब , क्या होगा
भाग का लेखा ।
139
देश है छूटा
बेगानों मे खोकर
सपना टूटा ।
140
काम न आए
थे कभी हमारे जो
दाएँ व बाएँ ।
-0-